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बस्तर: आदिवासियों की रणभूमि नहीं, भागीदारी का अधिकार चाहिए

बस्तर: आदिवासियों की रणभूमि नहीं, भागीदारी का अधिकार चाहिए

बस्तर, छत्तीसगढ़। कभी अपनी आदिवासी संस्कृति, घने जंगलों और समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों के लिए पहचाने जाने वाला बस्तर आज एक ऐसे भूभाग में तब्दील हो चुका है, जहां विकास और सुरक्षा की योजनाएं बंदूक़ों के साए में तय होती हैं। नक्सलवाद और राज्य की सैन्य रणनीतियों के बीच घिरा यह इलाका अब ‘रणभूमि’ की तरह दिखता है—लेकिन सवाल है कि इस युद्ध की सबसे बड़ी कीमत कौन चुका रहा है?

असली पीड़ित: आदिवासी समुदाय

नक्सली संगठन हों या सुरक्षा बल, दोनों में स्थानीय आदिवासियों की भागीदारी है। पर जब गोलियां चलती हैं, तो सबसे ज़्यादा नुकसान उन्हीं गांवों को होता है जहां ये लोग रहते हैं। स्कूलों की जगह सर्च ऑपरेशनों का ज़िक्र आम हो चुका है, और बच्चों की पढ़ाई से ज़्यादा बातचीत अब डर और असमंजस से जुड़ी है।

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खनिज संसाधनों पर नजरें और जंगल में खामोशी

बस्तर के जंगलों के नीचे लोहा, बॉक्साइट और कोयले के अपार भंडार हैं। लेकिन जिन इलाकों में खनन की संभावनाएं सबसे अधिक हैं, वही क्षेत्र सबसे अधिक सैन्य कार्रवाई की चपेट में हैं। क्या यह संयोग है, या नियोजित रणनीति? विकास के नाम पर जब आदिवासियों को उनकी ही ज़मीन से बेदखल किया जाता है, तो सवाल उठना लाज़िमी है कि यह तरक्की किसके लिए है?

नक्सलवाद: उम्मीद या धोखा?

आदिवासियों की उपेक्षा से उपजा नक्सलवाद आज उन्हीं के लिए नई जंजीर बनता जा रहा है। जबरन भर्ती, हिंसा और बुनियादी सुविधाओं के विरोध से यह आंदोलन अपनी नैतिक वैधता खो चुका है। जिनके हक़ के लिए ये लड़ाई शुरू हुई थी, वही अब सबसे ज़्यादा इसकी कीमत चुका रहे हैं।

समाधान की दिशा: हथियार नहीं, भागीदारी

बस्तर की समस्याओं का हल सिर्फ़ सैन्य रणनीतियों में नहीं, बल्कि समावेशी नीतियों में छिपा है।

  • आदिवासियों की ज़मीन पर बिना सहमति कोई परियोजना न हो।

  • ग्राम सभाओं को निर्णय प्रक्रिया का केंद्र बनाया जाए।

  • शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसी बुनियादी सुविधाएं प्राथमिकता में हों।

विकास वहीं है जहां विस्थापन नहीं

विकास की कोई भी परिभाषा, जिसमें आदिवासी शामिल नहीं, वह सिर्फ़ विस्थापन की नई शक्ल बन जाती है। ज़रूरत इस बात की है कि आदिवासी समुदाय को सिर्फ़ संरक्षण नहीं, बल्कि सत्ता और निर्णयों में हिस्सेदारी दी जाए।

बस्तर की अगली कहानी कैसी होगी?

बस्तर की पहचान किसी रणभूमि की नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण की बन सकती है—अगर सरकार, समाज और कॉरपोरेट जगत मिलकर आदिवासियों की आवाज़ को समझें और उन्हें निर्णयों में भागीदार बनाएं।

और अंत में, एक अनुत्तरित सवाल:

क्या हम तैयार हैं उन अनकही आवाज़ों को सुनने के लिए, जो आज भी जंगल की चुप्पियों में जिंदा हैं, लेकिन न न्यूज़ बुलेटिन में आती हैं और न ही सरकारी नीतियों में?

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